आर्टिलरी रेजीमेंट से अलग करके बनाया गया यह नया एवं अत्याधुनिक उड़ान प्लैटफ़ार्म वाला सैनिक संगठन गनर्स की गौरवशाली परम्परा को अग्रसर कर रहा है । एयर आब्जर्वेशन पोस्ट भारतीय आर्टिलरी में सर्वप्रथम 656 एयर ओ पी स्क्वार्डन आर ए एफ़ के रूप में शामिल हुई जो 14 नवम्बर 1943 को यह पहुंची । लेफ्टिनेंट कर्नल एस बी मेहता पहले भारतीय एयर ओ पी अफसर बने। युद्ध क्षेत्र में मानव ने जो सबसे पुरातन सामरिक सबक सीखा उनमें से एक यह है कि कोई सेना जीतनी अधिक दूरी से अपने दुश्मन पर वार कर सकती है वह युद्ध क्षेत्र युक्तचालन में उतनी ही अधिक गतिशील हो सकती है । युद्धरचना अथवा रोमन अक्षहिणी सेना के समय में भी जब सेनाऐ एकल कतारों में एवं इसका सामना करती थी तो समय भी सहायक सेनाओ द्वारा शुरुआती सामरिक फायदा उठाने का प्रयास किया जाता था । ऐसे सहायक सेना में वास्तव में धनुषधारी, स्लिंगेर्स एवं डौटर होते थे जो वास्तव में प्रोजेकटाएल होते थे। हालांकि ये सभी प्रयास भी उन दिनों बड़े स्तर पर बनाई गई सामरिक योजना पर पर्याप्त रूप से निर्णायक प्रभाव नहीं डालते थे ।
मेकेनिकल प्रोजेक्टिईलो के आविष्कार एवं युद्ध में प्रयोग किए जाने के पश्च्यात भी बेलिस्था, केटाफुल्ट, ट्रेबूशोट एवं क्रॉस – बो आने वाले लंबे समय तक प्रयोग किए जाते रहे । ऐसे समय केवल एक अहम बात थी कब्जा करने के ऑपरेशन में इंजिन ऑफ वार (प्रॉजेक्टाइल एवं इंजिनियर आविष्कारों का प्रयोग किया जाना) इस युग में निवेश को युद्धकाल का प्रमुख उदेश्य माना जाता था।
यह यूरोप के युद्धक्षेत्रों में सर्वप्रथम तोप का प्रयोग 14 वी शताब्दी में हुआ, आर्टिलरी को वास्तविक प्रयोग कि अवधि लंबी थी एवं इसका विकास धीमी गति से हुआ । तोपों ने धीरे – धीरे इंजिन ऑफ वार का स्थान ले लिया परंतु मध्यकाल कि घेराबंदी कला से ऊपर उठकर वर्तमान स्वरूप का रण कौशल बनने में लगभग चार सदियो का समय लगा ।
युद्ध में आर्टिलरी का सही प्रयोग करने वाला पहला व्यक्ति स्वीडन का राजा गुस्तावस अडोल्फ़स था । उसने मोबाइल आर्टिलरी के महत्व को समझा तथा सबसे पहले हल्के तोप का आविष्कार किया जिसका वजन 650 पौंड था । यह इतने कम भार वाली तोप थी जिसे युद्ध के दौरान दो सैनिक हेंडल कर सकते थे ।
यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी क्योकि लाइट फील्ड तोप के प्रयोग से ही वर्तमान समय के आर्टिलरी कुशता का विकास हुआ तथा युद्धक्षेत्र में आर्टिलरी के रणकौशल का पूरा प्रयोग होने तक लगभग दो सर्दी का समय और लगा । युद्ध में आर्टिलरी का आधुनिक परिकल्पना का श्रेय नेपोलियन को जाता है ।
पूर्वी देशो में आर्टिलरी का सबसे पहले प्रयोग कब किया गया यह कहना कठिन है क्योकि इस संबंध में सही ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं है । ट्र्वेनियर के अनुसार बारूद कि खोज प्राचीन समय में आसाम में हुई । वही से यह बुर्मा के रास्ते शुदूर पूर्व देशो तथा फिर वही से पश्चिमी देशों तक पहुंचा । उन शुरुआती दिनो में तोप में ढाई क्यूबिक्स लंबी धातु का पाइप अथवा नलिका होती थी जिसके पीछे कि और एक सुराख होता था जिसमे से बारूद को पलीता लगाया जाता था । तोप के माध्यम से दागी जाने वाली मिसाइल सामन्यात पत्थर एवं बाद में दथु के गोले भी होते थे । युद्ध के लिए बारूद के प्रयोग संबंदी यह ज्ञान इसके बाद कि सदियो में भुला दिया गया प्रतीत होता है क्योकि चौदहवि शताब्दी के उत्तरार्ध तक हमे आर्टिलरी तैनात करने का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता यहकी भारत में जमीनी युद्धकल में आर्टिलरी तोपकानो के प्रयोग का श्रेय मुग़ल सम्राट बाबर को जाता है । परंतु अब ऐसे प्रमाण उपलब्ध है जिनसे पता चलता है कि डेक्कन में बहमनी राजाओ ने विजयनगर साम्राज्य के खिलाफ हुए युद्ध में सर्वप्रथम आर्टिलरी का प्रयौग किया था । फारसी इतिहासकार फारिसता ( जो सोलहवि शताब्दी के दौरान अहमदनगर एवं बीजापुर शासको कि सेनाओ में तैनात रहे) ने लिखा है कि 1368 में अदोनी कि लड़ाई में मोहम्मद शाह प्रथम में आर्टिलरी कि कतार खड़ी कि (इसके लिए इतिहासकार ने पुर्तगाल शब्द टोपे इस्तेमाल किया) तथा उन टोपो को फारसी अबिसिनिथाई एवं अरब चलते थे । रणनीति के तहत युद्ध के आरंभ में गोलाबारी कि जाती थी जिससे विजयनगर कि सेना कि व्यूहरचना छिनभिन हो जाती थी जिसके पश्च्यात घुड़सवार सेना द्वारा घातक प्रहार किया जाता था ।
बहमनी राजाओ द्वारा तोप प्रयोग किया जाते संबंधी इस प्रमाण को सभी इतिहासकारो ने स्वीकार नहीं किया है परंतु इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि पंधरहवि सर्धी के अंत तक गुजरात का राजा मोहम्मद शाह जमीनी ऑपरेशन के दौरान घेराबंधी कोशल एवं नौसेना तोपो के रूप में आर्टिलरी का प्रयोग कर रहा था । इसके पश्च्यात पुर्तुगाल भारत पहुंचे जिन्होने सबसे पहले ऐसे युद्धपोतों को सुरुआत की जो टोपो से लाए होते थे एवं हिंद महासागर रणनीति में समुद्री कमान को परिकल्पना की शुरुआत की ।
सोलहवी सदी के आरंभ में कालीकट के राजा जमोरिन ने पुर्तुगालियों की तर्ज पर अपनी समुद्री जहाजो को नौसैनिक तोपो से लैस करना आरंभ कर दिया था।
सूरत में यूरोपीय लोगो से तथा अरब सागर पर फारस तथा अरब देशो से संपर्क के कारण मध्य एवं दक्षिण भारत में तोपो की शुरूआत हुई । उत्तर भारत लगभग डेढ़ सदी बाद तक तोपो के प्रयोग से अछूता रहा ।
मुगल आर्टिलरी
1526 में पानीपत की पहली लड़ाई के दौरान मुगल सम्राट बाबर ने उत्तर भारत में पहली बार आर्टिलरी का प्रयोग किया जब उसने दिल्ली के अफगान शासक इब्राहिम लोधी को निर्णायक शिकस्त दी । इब्राहिम लोधी की हार का मुख्य कारण बाबर द्वारा लगभग 300 तोपों का कारगर ढंग से प्रयोग किया जाना था जिन पर रोमी एवं फारसी तोपची तैनात थे जिन्होने उसमाली तोपचियों से तोप चलाने की कला सीखी थी । बाबर के अनुमान के अनुसार लोधी की सेना में 100000 सैनिक थे जिनमे पैदल, घोडसवार सैन्य दस्ते एवं एक हज़ार कवचित धात्री थे परंतु इस सेना में आर्टिलरी/तोपखाना नहीं था ।
इस लड़ाई में बाबर के आग्नेयास्त्रों में हैंडगन गन एवं लाइट गन शामिल थी जो लड़ाई की हल्की तोपों पर टिकाई गई थी । बाबर के पास मोर्टार नहीं थे क्योंकि उन्हे ले जाने के लिए भारी भरकम गाड़ी की आवश्यकता होती थी जिसे खींचने के लिए चार सौ से पाँच सौ सैनिकों की जरूरत पड़ती थी । हालांकि बाद में आगरा में बाबर के फारसी आयुध प्रमुख ने कुछ मोर्टर की ढलाई की जिनका प्रयोग 1527 में कन्वह की लड़ाई में किया गया ।
पानीपत की लड़ाई में बाबर की सेनाएं पाँच डिविजन में तैनात की गई – सेना मुख्य दाहिना पक्ष, बाया पक्ष, मध्य तथा पिछले भाग में तैनात सैन्यदस्ता (रियर गार्ड)।
इसके अलावा दो पाक्षिक सैन्यदल भी टौधामा के रूप में तैनात थे जिन्हे दुश्मन के पार्श्विक दस्तो के बाजू से जाकर सेना के पिछले भाग पर हमला करना था तथा दो छोटे आकार के परंतु मोबाइल रिजर्व दस्ते थे जिन्हे इतमीश कहा जाता था । सेना मुख्य अथवा आर्टिलरी दस्ते को सबसे आगे तैनात किया गया था जिसके साथ तोड़ेदार बंदूकची भी तैनात किये गये थे । आर्टिलरी की कमान उस्ताद अली तथा बाए पद की कमान मुस्तफा संभाल रहे थे । बंदूकचियों एवं आर्टिलरी के सैनिको को प्रयाप्त सुरक्षा प्रदान करने के लिए 700 भार वाहिनी गाड़ियो को सामने खड़ा कर दिया गया तथा प्रत्येक दो-दो गाड़ियो के पहिया को बेल की उमेठी हुई खल से तुर्ख तरीके से आपस में बांधा गया था । प्रत्येक दो गाड़ियो के बीच के फासला में (लगबाग 16 गज) लकड़ी की तिपाइयो पर पाँच अथवा छ: शील्ड (जिन्हे मैटल कहा जाता था) रखी गई थी जिनमे सौ घोडसवार दस्ते आगे बढ़कर हमला करते थे ।
लड़ाई के दौरान बाबर की मुख्य योजना अफगान सेना के पार्श्विक सैन्याधाल को घेरकर मध्य में लाने की थी ताकि उसकी आर्टिलरी के सैनिको को आसान लक्ष्य मिल सके तथा वो संवेदित सथृसेना (लक्ष्य) पर घातक प्रहार कर सके । योजना के तहत बाबर अपने शत्रु को बड़ी संख्या में अपने सामने की ओर लाकर उस पर सांघातिक प्रहार करना चाहता था । अंत में जब शत्रु सेना आगे की दिशा में बढ़ी तो बाबर के ट्रप्स (घुड़सवार दस्ते) ने अफगानों को बाजू से घेरते हुए शत्रु सेना के पिछले भाग पर हमला किया । इसके साथ साथ दाये एवं बाए सैन्य दस्तो ने दुश्मन पर नजदीकी से हमला बोला । सभी दिशाओ से घिरने पर अफगान सेना सामने की और इकट्ठा होने पर मजबूत हो गई । ऐसे में बाबर के तोपची उस्ताद अली तथा मुस्तफा ने अफगान सैनिकों से वीरता से लड़े परंतु हजारो की संख्या में मारे गए । इस संबंध में लैन फुले ने लिखा है “प्रमुख तोपची उस्ताद अली ने अपनी फिरंगी तोपों से सामने की दिशा में जबरदस्त गोलाबारी की तथा उसके साथी तोपची मुस्तफा ने बाए और मध्य भाग पर गोलाबारी की।”
तोपों की गोलाबारी से भयभीत होकर इब्राहिम लोधी की सेना के हाथी मुड़कर भाग खड़े हुए तथा अपने सैनिको को कुचल डाला जिससे भय एवं भागदौड़ की स्थिति उत्तपन हो गई ।
इस तरह अपनी बेहतर सामरिक नीति एवं आले दर्जे की प्रशीक्षित घुड़सवार सेना तथा तोपखाना के नए सेनाओ का प्रयोग करते हुए बाबर ने अपनी सेना से बड़ी संख्या वाली शक्तिशाली शत्रु सेना को आधे दिन की लड़ाई में ही पराजित कर दिया।
इसके पश्चात 16 मार्च 1527 को बाबर तथा चितोंड़ के शासक राणा सांगा के बीच कनवाह (खानवा) की लड़ाई लड़ी गई जिसमे एक बार फिर शक्तिशाली आर्टिलरी फ़ाइटर के साथ साथ बेहतर सामरिक नीति एवं कुशल घुड़सवार सेना द्वारा किये गए हमले से मुग़लो को विजयश्री दिलाई । अपनी सेना से बड़ी संख्या वाली शत्रु सेना का सामना करने के लिए बाबर ने अपनी मोर्टर एवं तोड़ेधार बंदूक का प्रयोग किया। उसने अपनी सेना की तैनाती पानीपत की लड़ाई के दौरान की गई तैनाती की भांति है की पानीपत की लड़ाई में जहां 700 गाडियाँ खड़ी की गई थी वही कनवाह की लड़ाई में संभवतः 1000 गाड़ियों को एवं साथ तुर्ख अंधज से बांधकर सेना के सामने तैनात कर दिया गया पहले वाली तोपों, पाँच अथवा छ: शील्ड लगाई गई तथा उन्हे प्रत्येक दो दो गाड़ियो के बीच खड़ा किया गया एवं थोड़े थोड़े फासलों पर घुड़सवार के आगे जाने के लिए रास्ता छोड़ा गया था । उस्ताद अली सेना के मध्य भाग के सामने मोर्टर एवं पहिये वाली अन्य तोपो के साथ तैनात थे (जिन्हे मुग़लो द्वारा जिंसी तोपखाना कहा जाता था) जबकि उसका साथी तोपची मुस्तफा खान उससे दूर दाहिने पक्ष के मध्य भाग के सामने अपनी बंदूखचियों एवं गुमहू तोपो (जम्बूरक) अथवा दरथी तोपखाना के साथ तैनात था । कनवाह की लड़ाई में बाबर की योजना राजपूत योद्धाओ की बड़ी सेना की संख्या को अपनी तोड़ेधर बंधुको एवं पत्थर फेंकने वाले मोटोर के हमले से कम करने एवं दुश्मन की नफ़री कम होना एवं उसकी शक्ति क्षीण हो जाने के पश्चात आक्रमण करने की थी । लड़ाई की शुरुआत राजपूतो द्वारा बाबर की सेना के दाहिने पक्ष पर हमला करने से हुई ।
ऐसे में रिर्जव दस्तो को तुरंत भेजा गया तथा मुस्तफा सभी जो सेना के मध्य भाग के दाई ओर आर्टिलरी के एक हिस्से की कमान संभाल रहा था ने हमला करने वाले राजपूतो पर गोलाबारी आरंभ की ।
मराठों की आर्टिलरी
मराठों की आर्टिलरी उनकी समकालीन सेनाओ की आर्टिलरी की अपेक्षा कमजोर थी जिसकी मुख्य वजह यह थी की मराठे अपनी तोपों के लिए सभी स्रोतों से की गई खरीद पर निर्भर करते थे । हालांकि शिवाजी के पास अपना नियमित तोपखाना विभाग था तथा उसे आर्टिलरी की प्रभावशीलता का बखूबी ज्ञान था फिर भी उसका अपना ढलाईखाना नहीं था । वह सूरत के ढलाई घरो से कुछ तोप खरीदते थे जबकि बाकी तोपे दक्षिण के मुस्लिम शाखाओ से छीनी गई थी। परन्तु कुल मिलाकर शिवाजी के तोपखाने की व्याख्या ‘पुरानी एवं खराब तोपों के संग्रह के तौर पर की गई जिन्हे हथियारो एवं अम्यूनिशन का व्यापार करने वाली यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों ने शिवाजी के मत्थे मढ़ दिया था ।
यूरोप में बनी तोपों के अलावा शिवाजी के पास भारत में बनी हुई वह हल्की तोपे भी थी जिन्हे तिजाला अथवा ज़ंबूरक अथवा शटरनाल कहा जाता था । आर्टिलरी की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए शिवाजी द्वारा उठाया गया सबसे बड़ा कदम यह था की उसने एक फ्रांसीसी कंपनी को राजपुरा में एक फैक्ट्री स्थापित करने को अनुमति दी थी ।
पेशवाओ के शासनकाल में मराठों ने अपनी तोपे स्वयं बनाने के लिए कुछ प्रयास किया । बाजीराव ने तोप बनाने के लिए ढलाई खानो (फ़ौन्ड्री) की शुरुआत कराई । माधवराव प्रथम के शासन काल के दौरान 1765-1766 मे आंबेगाव मे तोप के गोले बनाने के लिए 1 फैक्ट्री स्थापित की गई। हालांकि इन फैक्ट्रियों मे कई अप्रचलित तोपों का निर्माण किया गया जो बेहद अनगड एवं बेडोल / अदक्ष थी और मराठे अभी भी हथियारो एवं कंपनियो पर निर्भर थे।
पानीपत की तीसरी लड़ाई मे मराठों द्वारा अहमद शाह अबदाली की मोबाइल आर्टिलरी के खिलाफ प्रयोग की गई तोपों का वर्णन काशीराज पंडित ने इन शब्दो मे किया है, “वे तोपे बेहद बड़े आकार की एवं वजनी थी तथा उनके लेवल मे आसानी से बदलाव नहीं किया जा सकता था, उनका गोला अबदाली की सेना के उपर से होता हुआ एक मिल पीछे दूर गिरता था”।
परशुराम भाऊ पटवर्धन द्वारा मैसूर की लड़ाई मे उसके साथ गई गारदियों द्वारा प्रयोग किए गए हथियारो को लेफ्टिनेंट मूर ने पहले की तरह ही दोषपूर्ण/खराब बताया।
टीपू सुल्तान की आर्टिलरी
१८ वी सदी के अन्य भारतीय शासको की भाँति टीपू सुल्तान ने अपनी सेना को पश्चिमी देशो के मॉडल पर संगठित करने की योजना बनाई जो इन्फेन्ट्री एवं आर्टिलरी को सशक्त बनाने पर आधारित थी । मुख्य रूप से इन्फेन्ट्री सैनिक होने के नाते उसने घुड़सवार सेना की अपेक्षा अपनी आर्टिलरी पर भरोसा किया।
घुड़सवार सेना को उसने प्राय नजर अंदाज किया था । टीपू सुल्तान द्वारा मराठों एवं अंग्रजों के खिलाफ लड़े गए सभी युद्धों में उसकी आर्टिलरी ने सक्रिय भूमिका निभाई । अँग्रेजी सेना जिसके पास आला दर्जे की आधुनिक आर्टिलरी थी का मुक़ाबला करने के लिए टीपू सुल्तान को अपनी तोपों के स्तर मे सुधार करना पड़ा। लार्ड कार्नवालिस द्वारा श्रीरंगपट्टनम की घेराबंदी के पश्चात टीपू सुल्तान ने बेहतर किस्म की तोपों की ढलाई के कार्य पर ध्यान केन्द्रित किया तथा फ्रांस से भी कुछ तोपें मँगवाई । फ्रांसीसी तकनीशियन की देखरेख मे टीपू सुल्तान के कारीगर तोपों (लोहे एवं पित्तल की) ढलाई करते थे। टीपू सुल्तान ने मिट्टी की भट्ठियों मे खाल की ढोकनी से हवा देकर लोहा पिघलाने तथा इसे तोप के गोले का रूप देने की तकनीक विकसित की । बूचनान के शब्दो मे “टीपू ने एक फ्रांसीसी (संभवतः मनौद को नौकरी पर रखा था जिसने तोपों मे छेद करने के लिए पानी से चलाने वाला एक इंजन बनाया एवं ऑब्सर्वर के अनुसार पित्तल की तोपों एवं मोर्टर को अलंकरित स्वरूप देने मे कुशलता हासिल कर ली थी ।
सिखों की आर्टिलरी
गुरु गोविंद सिंह ने मुग़लो से लड़ने के लिए सर्व प्रथम सीखों को एक सैन्य संगठन करने के रूप मे एकजुट करने का निर्णय लिया । हालांकि शुरुआत मे सिख सेनाओ मे सभी पैदल सैनिक एवं घुडसवार सैनिक शामिल थे जो मिसाल अथवा दल खालसा नाम से विख्यात थे ।
बाद मे घुड़सवार सैनिको का अनुपात काफी हद तक बढ़ गया, एक समय मे मिसालों की नफ़री मे दस हजार पैदल सैनिक तथा इसमे एक से तीन हजार के बीच घुड़सवार सैनिक शामिल थे ।
सिखों ने पहली बार आर्टिलरी का प्रयोग उस समय किया जब बंदा बहादुर ने सरहिंद के सूबेदार से लड़ाई लड़ी । गुलाम मोहिउद्दीन ने वर्णन किया है की १७१५ मे गुरदासपुर मे सिखों के पास लाइट आर्टिलरी थी जिसे उन्होने सरहिंद के फौजदार वजीर खान से छीना था । आर्टिलरी के महकमे को २ खंडो मे संगठित किया गया था - तोपखाना काला (घेराबंदी के लिए तोपे) एवं तोपखाना खुर्द (युद्ध क्षेत्र के लिए तोपे) तथा १८०४ मे ही इसे एक अलग दारोगा के अधीन किया गया । तोपखाना जैसी अथवा मिश्रित बैट्रियों मे एस पी गावी एवं होबात तोपे तथा जाईंबिज्गवा अथवा घुमौ बैट्रियां शामिल थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध मे भागीदारी
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय आर्टिलरी ने, वर्मा, पूर्व अफ्रिका, मलाया एवं मध्य पूर्व एवं इटली मे लड़ाई मे पहली बार भाग लिया हालांकि उस युद्ध मे इसकी भूमिका सीमित रही क्योकि इसकी यूनिटों को रॉयल आर्टिलरी के अंग के रूप मे तैनात किया गया था जो आर्टिलरी सपोर्ट का प्रावधान करने के लिए ज़िम्मेवार थी। इस विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय आर्टिलरी अपनी पहचान नहीं बना सकी। लड़ाई मे भारतीय आर्टिलरी की भागीदारी की शुरुआत पूर्वी आफ्रिका से हुई । इटली द्वारा जर्मनी के पक्ष मे विश्वयुद्ध मे शामिल होने की संभावना के बचावकारी उपाय के तौर पर ब्रिटेन द्वारा जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा से २ दिन पहले ०१ सितंबर १९३९ को २२ माउंटेन बैट्री को केन्या के लिए रवाना कर दिया गया। यह यूनिट द्वितीय विश्व युद्ध मे लड़ाई मे भाग लेने वाली पहली भारतीय आर्टिलरी यूनिट बनी। बाद मे जब इटली युद्ध मे शामिल हो गया तो यह माउंटेन बैट्री पूर्वी अफ्रीकी ब्रिगेड को आबंटित कर दिया गया जिसने इतालवी सेना को दक्षिण पूर्वी क्षेत्र से खदेड़ दिया। भारतीय स्टेट फोर्स (आई एस एफ), आर्टिलरी यूनिट, ०१ जम्मू एवं कश्मीर एवं २२ भारतीय माउंटेन बैट्री उन आपरेशनों मे तैनात आर्टिलरी के भारतीय अंग थे जिनके कारण अम्बा अलागी मे इतालवी सेना ने आत्मसमर्पण किया। केरेन एवम अबिसिनीया मे कारवाई के पश्चात ०१ जम्मू एवं कश्मीर बैट्री फ्रांसीसी एवं मित्र राष्ट्र सेनाओ के साथ मिलकर लड़ी जिन्होने सीरिया को फ्रांस से आजाद करवाया।
२ अन्य भारतीय माउंटेन आर्टीलरी यूनिटे २७ एवं १८ भारतीय माउंटेन बैट्रियाँ इन्हे सौंपी गयी विशेष भूमिका निभाने अदन पहुंची। १९४१ के उतरार्ध में मध्य पूर्व में भारतीय माउंटेन बैट्रियों को २६ भारतीय माउंटेन रेजीमेंट के अधीन कर दिया गया।
अप्रैल १९४२ मे यह रेजिमेंट भारत लौट आई तथा इसके बाद इसे नॉर्थ वेस्ट फ़्रोंटियर क्षेत्र में तैनात कर दिया गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान स्थापित की गयी भारतीय आर्टीलरी यूनिटों में से सबसे पहले विदेश जाने वाली यूनिट १ भारतीय एंटि टैंक रेजीमेंट की एक बैट्री थी । १९४१ की शुरुआत में इसे इराक भेजा गया जहां इसे राशिद अली विद्रोह का दमन करने वाली सेना की सहायता में तैनात किया गया । १९४१ के अंत तक बाकी रेजिमेंट इराक के लिए कूच कर गई । मार्च १९४२ मे भारतीय एंटी टैंक रेजिमेंट १० भारतीय डिविजन का हिस्सा बनी । २ भारतीय फील्ड रेजीमेंट ६ भारतीय डिविजन के साथ यर्शिमा एवं इराक कमान (पी ए आई सी) गई ।
२ भारतीय फील्ड एवं १ भारतीय एंटी टैंक रेजीमेंटों को रेगिस्तानी इलाके में तैनात किया गया तथा उन्होने रोमेल के खिलाफ लिबियाई लड़ाईयो मे भाग लिया तथा वीर हाशिम में विजय हासिल की। इस दौरान इन दोनों रेजीमेंटों को भारी केजुयलिटी झेलनी पड़ी। भारतीय एंटी टैंक रेजिमेंट को इतना नुकसान झेलना पड़ा की इसे अस्थायी रूप से विखंडित करना पड़ा तथा बाद मे भारत मे इसे पुनः स्थापित किया गया। आगामी पैरा मे वीर हाशिम मे लड़ाई का वर्णन २ भारतीय फील्ड रेजीमेंट की वीरता एवं व्यावसायिक कौशल का प्रमाण है। २६ मई १९४२ को ३ भारतीय मोटर ब्रिगेड जिसमे २ भारतीय फील्ड रेजीमेंट भी शामिल थी वीर हाशिम के दक्षिण मे स्थित क्षेत्र मे पहुंची जिस पर एक फ्री फ़्रांसीसी ब्रिगेड का कब्जा था।
२७ मई की सुबह पिछली शाम को मिली खबर की पुष्टि हो गयी। भारतीय मोटर ब्रिगेड के फॉरवर्ड रक्षित क्षेत्रो से लगभग २ आर्मर्ड डिविजन के आकार के बराबर जर्मन आर्मर्ड देखा जा सकता था। कमांडिंग अफसर ने सभी बैट्रियों को उस जर्मन आर्मर्ड पर हमला करने का आदेश दिया।
उनकी गोलाबारी ने हल्के वाहनो को छिन्न भिन्न कर दिया जबकि जर्मन टैंक हमले के लिए तैयार हुए । ३ व ७ फील्ड बैटरियों के ट्रूप्स ने ३०० गज की रेंज से जर्मन टैंको पर हमला किया तथा उनमें से कुछ को अपनी शुरुआती गोलाबारी की चपेट मे ले लिया। इसके पश्चात जर्मन टैंक बड़ी नफ़री मे आगे आए। ऐसे मे आखिरी सैनिक एवं आखिरी राउंड रहने तक लड़ने का आदेश दिया गया। फॉरवर्ड ट्रूप्स बड़ी तादाद वाले जर्मन टैंको से लोहा लेते रहे। कुछ जर्मन आर्मर ने बगल से पीछे आकर ४ बैट्री एवं रियर ट्रूप्स पर हमला किया। सी ट्रूप्स ने आखिरी टैंको को तबाह कर दिया तथा ७ फील्ड बैट्री नंबर ३ गन से १० गज दूरी पर आकर रुक गयी। गन पोजीशन अफसर एवं गन डिटेचमेंट कमाँडर मारे गए तथा नंबर १ बुरी तरह घायल हो गया। ३ बैट्री गन क्षेत्र मे बी ट्रूप ने ७ टैंको को ध्वस्त कर दिया । हर लिहाज से इसे अच्छा प्रदर्शन कहा जा सकता था ।
२९ अगस्त १९४२ के स्टेट्समैन समाचार पत्र मे भारतीय आर्टिलरी मैन के लिए पुरुस्कार (अवार्ड्स) शीर्षक से एक प्रैस नोट प्राकाशित हुआ जो भारतीय सैनिको द्वारा वीर हाशिम मे अर्जित किए गए ३ विशिष्ट सेना मेडल के संबंध मे था। इनमे से २ मैडल एंटी फील्ड रेजीमेंट मे १ नॉन कमीशण्ड अफसर द्वारा अर्जित किया गया था। पहले मामले में डिटेचमेंट कमांडर अपनी तोप को अन्य स्थान पर ले जा रहा था जब जर्मन टैंको ने जोरदार हमला किया । कमांडर ने अपनी तोप से तुरंत हमला करते हुये २ टैंकों को उड़ा दिया। नयी पोजीशन पर जाने के लिए मजबूर होने पर भी उसने अदम्य साहस एवं लड़ाई के दौरान धैर्य का प्रदर्शन करते हुये एक और टैंक को निशाना बनाया । द्वितीय पुरस्कार (विशिष्ट सेवा मेडल) जर्मन टैंको के साथ हुई भीषण लड़ाई के दौरान अर्जित किया गया। डिटेचमेंट कमाँडर ने अपनी साहस पूर्ण कारवाई से अपने सैनिको के समक्छ एक मिसाल प्रस्तुत की जिन्होने बहादुरी से लड़ते हुए कई टैंको पर गोलाबारी करने की कारवाई के दौरान साहस का प्रदर्शन करने के लिए तृतीय आर्ड दी एस एम अर्जित किया गया।
३० अगस्त १९४२ को स्टेट्समैन समाचार पत्र मे मेजर पी पी कुमारमंगलम को डी एस ओ से नवाजे जाने के संबंध मे एक नोट प्रकाशित किया गया जो वीर हाशिम मे ७ फील्ड बैट्री की कमान संभाल रहे थे । ०२ सितंबर १९४२ को इस समाचार पत्र मे हवलदार मनोज लक्ष्मी नरयु के उच्च साहस एवं ड्यूटी के प्रति समर्पण की गाथा प्रकाशित की गयी जो उसके साथियो के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी। इस लड़ाई के दौरान वह अपने आसपास फटते हुए गोलो की परवाह न करते हुए एक तोप से दूसरी तोप तक जाकर अपने साथियो (क्रू) की होसलाफजाई करते हुए उनका मनोबल बढ़ाते रहे। लड़ाई के अंत मे पता चला की दोनों ट्रूप्स अफसर लापता थे। हवलदार मनोज नरसू ने जीवित बचे सैनिको को तलाश कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया।
भारतीय आर्टिलरी के प्रदर्शन की सराहना स्वयं विसटन चर्चिल ने वीर हाशिम की लड़ाई के अगले दिन ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स मे की। ऐसा सम्मान बगैर बलिदान के हासिल नहीं हुआ था। नायक जगनाथ, जिन्होने ८ टैंक ध्वस्त किए, बुरी तरह जख्मी हो गए थे तथा अपनी तोप से निशाना लगाते हुये ही वह वीरगति को प्राप्त हुए । २ भारतीय फील्ड रेजीमेंट के बाकी बचे सैनिकों को वीरता से संगठित करके रेजीमेंट विभिन्न कमान के साथ लड़ाई मे जुट गई तथा अल अलामीन मे रिमेल के आक्रमण को रोकने का प्रयास किया । इस दौरान और कैजुयल्टियां झेलनी पड़ी तथा और कई सैनिक युद्धबंदी बना लिए गए। युद्धबंदी बनाए गए अफसरो मे भारतीय आर्टिलरी के चार अफसर थे जिनमे मेजर कुमार मंगलम भी शामिल थे।
वीर हाशिम मे लड़ाई के दौरान वर्मा मे जापानी सेना के आक्रमण के कारण भारतीय आर्टिलरी को भारत की पूर्ति सीमा पर आना पड़ा जो वर्मा आसाम सीमावर्ती क्षेत्र था। भारतीय सेना की कई गनर यूनिटे भारत लौट आई। १ भारतीय एंटी टैंक रेजीमेंट मध्य पूर्व से (५ इन्फैन्ट्री डिवीजन के साथ ) एवं २ भारतीय फील्ड रेजीमेंट भी भारत लौट आई। मध्य पूर्ण मे रुकने वाली एकमात्र भारतीय आर्टिलरी यूनिट ४ (मराठा) एंटी टैंक रेजीमेंट थी। इस रेजीमेंट के मराठा एंटी-टैंक गनर्स ने ८ भारतीय इन्फैन्ट्री डिवीजन के इटली मे किए गए सभी आपरेशनों मे भाग लिया। ४ (मराठा) एंटी टैंक रेजीमेंट की तोपो एवं जीपों को स्वयं मराठा एंटी-टैंक गनर्स द्वारा बनाई गई स्टील केबल के रास्ते नदी के उपर से उस पार पहुंचाया उन आपरेशनों मे (५ मराठा) एंटी-टैंक) रेजीमेंट ने एक डी आई डी एस एम अर्जित किया । बाद मे ५ (मराठा) ऐन्टी-टैंक रेजीमेंट ने मोर्टर भूमिका मे भी काम किया। गोठीक लिंक पर किए गए हमले के दौरान मराठा मोर्टार गनर्स द्वारा की गई सहायता की डिवीजनल कमांडर ने काफी सराहना की ।
मलाया मे भारतीय आर्टिलरी
जापानी सेना के खिलाफ़ युद्ध मे भाग लेने वाली सबसे पहली भारतीय आर्टिलरी यूनिट २२ माउंटेन रेजीमेंट थी जो अगस्त १९३९ मे भारत से समुद्री रास्ते से बारात से मलाया के लिए रवाना हुई तथा उसे मैकेनाइज़ किया गया। मलाया पहुचने पर इस रेजीमेंट की २१ माउंटेन बैट्री को ०६ दिसंबर १९४१ को ८ इनफेन्ट्री ब्रिगेड की सहायता से (कोटा बारू टोल मे) तैनात किया गया तथा इसने ८ दिसंबर को हमले के दिन अपनी रेंज मे जापानी जहाजो पर गोला बारी की । २ माउंटेन रेजीमेंट ने छोटी डिटेच्मेंट्स के रूप मे सम्पूर्ण प्रायद्वीप मे लड़ाई लड़ी। इसकी बैट्रियों को सेकेन्डरी एंटी टैंक भूमिका मे तैनात किया गया था । ५ माउंटेन बैट्री के सैनिको ने विशेष रूप से ऐन्टी टैंक गनर्स के रूप मे काफी सरहनीय कार्य किया ।
१ भारतीय हैवी एंटी एयरक्राफ्ट रेजीमेंट तथा १, ५ एवं ५ इंडियन लाइट एंटी एयरक्राफ्ट बैट्रियों को हाँगकाँग एवं सिंगापुर रॉयल आर्टिलरी (एचकेएसआरए) तथा रॉयल आर्टिलरी यूनिटों के साथ एयरफील्डों एवं सिंगापूर मे तैनात किया गया। जापानी वायुसेना द्वारा प्रतिदिन किये गये हवाई हमलो के कारण एंटी एयरक्राफ्ट गनर्स को भी लगातार कार्यवाई करनी पड़ी। एस दौरान कैजुयल्टी भी हुई परंतु सभी रैंकों ने साहस एवं धैर्य से अपने कार्यो को अंजाम दिया। २२ माउंटेन रेजीमेंट एवं १ भारतीय हैवी एंटी-एयरक्राफ्ट रेजीमेंट को मलाया मे बंदी बना लिया गया ।
वर्मा में आपरेशन
जापानी युद्ध आरंभ होने के पश्चात १७ भारतीय इन्फैन्ट्री डिवीजन को वर्मा जाने का आदेश दिया गया । इस डिवीजन के साथ संबद्ध (अटेच) रॉयल आर्टिलरी मुख्यालय भी सूसी जहाज द्वारा बनाया गया। ‘प्रेज़ीडेन्ट दायमर’ जहाज के रंगून पहुँचने तक मलाया पर हमला हो चुका था तथा सिंगापुर पर भी हमले का खतरा मंडरा रहा था । रॉयल आर्टिलरी मुख्यालय के जहाज से अवरोहण कर उसे १७ भारतीय इन्फैन्ट्री डिवीजन के साथ गौलमित भेज दिया गया जहा इसने ५ एवं १२ भारतीय मौलमिन बैट्रियों एवं मौलमिन गैरिज़न की कमान संभाली । २७ माउंटेन रेजीमेंट मुख्यालयों, जो १९४१ के अंत मे बर्मा पहुँचा था, को २३ माउंटेन बैट्री की कमान जारी रखी गई । ५ एवं १२ माउंटेन बैट्रियों को छोड़कर २७ माउंटेन रेजीमेंट ने १ वर्मा डिवीजन के अधीन रहते हुए कार्यवाई की ।
५ (बॉम्बे) माउंटेन बैट्री का एक सेक्शन पान फेरि मे बालूच रेजीमेंट की एक बटालियन के साथ तैनात किया गया। एक पैरामीटर कैंप स्थापित किया गया। बैट्री ट्रांसपोर्ट एस पैरामीटर कैंप के बाहर स्थित था जिस पर ४८ घंटो तक भीषण हमला किया गया। जब इन्फैन्ट्री को पीछे हटाना पड़ा तो २ तोपों को वही छोड़ना पड़ा, परंतु रॉयल आर्टिलरी वर्मा सेना ने उसके तुरंत बाद ही उनके स्थान पर और तोपें भेज दी। १६ इन्फैन्ट्री ब्रिगेड बॉक्स की सहायता मे कार्यवाही करते समय, ५ बैटरी की ओबसरवेशन पोस्ट का संपर्क टूट गया। इन्फैन्ट्री को लिंक-औ करने का मौका देने के लिए बैट्री कमांडर ने जबरदस्त गोलाबारी की। सिटिंग की लड़ाई मे ५ एवं १२ माउंटेन बैट्रियों मे १७ इन्फैन्ट्री डिवीजन के साथ मिलकर कार्यवाही की।
भारत-वर्मा सीमा पर आप्रेशन (मई-१९४२- सितंबर १९४४)
द्वितीय विश्व युद्ध के घटनाक्रम के बीच सेना फोरमेशनों को अराकान एवं एमफल मोर्चो पर शीघ्रता से भेजा गया ताकि सीमा पर जापानी सेना को आगे बढ़ने से रोका जा सके। १९४३ की वसंत ऋतु के दौरान आकयाब को फिर से अपने कब्जे मे लेने के लिए (जिसमे २३ माउंटेन रेजीमेंट ने भाग लिया) १४ डिवीजन द्वारा आक्रमण किया गया। १५ कोर को अरावान ऑपरेशन के लिए गठित किया गया तथा १४ कोर को चौहदवीं सेना (जन-एल “विल” स्लिम) के आधानी एमफल मोर्चे की रक्षा की ज़िम्मेदारी सौंपी गई) टीडीम क्षेत्र मे १७ भारतीय लाइट डिवीजन की जापानी सेना से करीबी लड़ाई हुई। २१, २८ एवं २९ भारतीय माउंटेन रेजीमेंटों ने इस लड़ाई मे १७ भारतीय लाइट डिवीजन का साथ दिया। चीनी पहाड़ियो मे विशेषकर केनेडी पीक क्षेत्र मे भीषण लड़ाई लड़ी गई।
निम्नलिखित भारतीय आर्टिलरी यूनिटों ने द्वितीय विश्व युद्ध मे भाग लिया :-
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दिनांक |
रेजीमेंट का नाम |
टिप्पणी |
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०१ सितंबर १९३९ |
२२ माउंटेन रेजीमेंट |
पशुओं के बगैर मलाया के लिए कुछ किया । गंतव्य पर मेकेनाइज्ड के रूप मे पहुंचाने हेतु |
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०१ सितंबर ३९ |
२२ माउंटेन बैट्री |
केन्या के लिए पोतारोहण |
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०३ अक्तूबर १९४० |
२७ माउंटेन बैट्री |
आदान के लिए पोतारोहण एवं विशेष भूमिका के लिए निर्धारित किया गया |
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१९४१ के मध्य मे |
भारतीय एंटी-टैंक रेजीमेंट की २ बैट्रियाँ |
राशिद अली विद्रोह का दमन करने के लिए एक भेजी गई |
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२० मार्च १९४१ |
१२ (पी) माउंटेन बैट्री |
वर्मा के लिए पोतारोहण |
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१४ जून १९४१ |
२३ माउंटेन बैट्री |
वर्मा के लिए पोतारोहण स्थापना के रूप मे |
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१९ जुलाई १९४१ |
भारतीय हैवी एंटी-एयरक्राफ्ट रेजीमेंट |
मलाया के लिए एरक बैट्री के बगैर पोतारोहण। |
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१९ जुलाई १९४१ |
बैट्री १ भारतीय एंटी-टैंक रेजीमेंट |
एक भेजी गई |
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०५ नवंबर १९४१ |
२ भारतीय फील्ड रेजीमेंट |
मद्रास बैट्री के बगैर इराक के लिए पोतारोहण |
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२२ नवंबर १९४१ |
१ भारतीय एंटी-टैंक रेजीमेंट (२ बैट्रियों के बगैर) |
रेजिमेंटल मुख्यालय एवं बाकी दो बैट्रियों का इराक के लिए पोतारोहण |
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२५ नवंबर १९४१ |
२७ भारतीय माउंटेन रेजीमेंट |
रेजिमेंटल मुख्यालय एवं ५ माउंटेन बैट्री का इराक के लिए पोतारोहण |
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२७ नवंबर १९४१ |
१ भारतीय कोस्ट रेजीमेंट |
आड़ू आटोली के लिए पोतारोहण |
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२८ दिसंबर १९४१ |
३ भारतीय लाइट क्राफ्ट बैट्री |
एंटी-एअर को को-भूमिका मे बर्मा के लिए पोतारोहण |
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१९४१ के उत्तरार्ध मे |
२६ भारतीय माउंटेन रेजीमेंट |
पूर्वी आफ्रिका एवं मध्य पूर्व मे माउंटेन बैट्रियों की कमान संभालने के उद्देश्य से रेजिमेंटल मुख्यालय की स्थापना की गई |
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०९ फरवरी १९४२ |
२८ भारतीय माउंटेन रेजीमेंट |
रेजीमेंटल मुख्यालय १५ एवं २८ माउंटेन बैट्रियों का बर्मा के लिए पोतारोहण। म्यूलीज़ और उनके चालक बर्मा मे लैंड नहीं कर सके तथा भारत लौट आए । |
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९ फरवरी १९४२ |
२ भारतीय एंटी-टैंक रेजीमेंट |
बर्मा के लिए पोतारोहण तोपों एवं वाहनों को अलग अलग जहाजो द्वारा भेजा गया। |
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२५ फरवरी १९४२ |
१ भारतीय फील्ड रेजीमेंट |
बर्मा के लिए पोतारोहण |
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जुलाई १९४२ के पूर्वार्ध मे |
३ भारतीय एंटी टैंक रेजीमेंट |
आस्ट्रेलाइ डिवीजन की आर्टिलरी को रिलीव करने के लिए सीलों भेजी गई यूनिटों मे शामिल |
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१९ अगस्त १९४२ |
५ (मराठा) भारतीय एंटी टैंक रेजीमेंट |
स्टैटिक १८ पौंडर एंटी टैंक रेजीमेंट के रूप मे इराक के लिए पोतारोहण / २ पौंडर एंटी टैंक तोपो से नाइस मोबाइल यूनिट के रूप मे पुनर्गठित होने के मकसद के लिए। |
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१९ अगस्त १९४२ |
५ (मराठा) भारतीय एंटी टैंक रेजीमेंट |
मध्य पूर्व मे भेजी गई मई १९४३ मे ५ भारतीय डिवीजन के साथ भारत वापस लौटी |
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१२ सितंबर १९४२ |
१२ भारतीय बेस्ट बैट्री |
डीयागो गार्सिया के लिए समुद्री रास्ते से रवाना |
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२७ नवम्बर १९४२ |
३ भारतीय कोस्ट बैट्री |
आबु आटोल के लिए समुद्री रास्ते से रवाना |
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७ सितंबर १९४२ |
१३ भारतीय कोस्ट बैट्री |
एक माह के प्रशिक्षण के लिए कोको हिप से होते हुये सीलोंन के लिए रवाना हुई |
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०१ फरवरी १९४४ |
५ भारतीय कोस्ट बैट्री (कोचीन) |
आबु आटोल मे ७ भारतीय कोस्ट बैट्री का स्थान लिया |
आर्टिलरी रेजीमेंट भारतीय सेना का एक दुर्जेय आपरेशनल सेनांग है। ऐतिहासिक तौर पर इसका संबंध मुगल सम्राट / बादशाह बाबर से जुड़ा हुआ है जिसने १५२६ मे पानीपत की लड़ाई के दौरान भारत मे आर्टिलरी का प्रयोग आरंभ किया हालांकि १३६८ मे आदिति की लड़ाई मे बदमती राजाओ द्वारा तथा पंद्रहवी शताब्दी मे गुजरात के राजा मुहम्मद शाह द्वारा तोप का प्रयोग किए जाने के प्रमाण भी इतिहास मे दर्ज है ।
भारत मे आर्टिलरी रेजीमेंट की शुरुआत २८ सितंबर १८२७ को बॉम्बे आर्टिलरी की स्थापना से हुई जिसका बाद मे ५ बॉम्बे माउंटेन बैट्री के रूप मे पुनरकरण किया गया। इस दिन वो आर्टिलरी रेजीमेंट ‘गनर्स डे’ के रूप मे मनाती है। प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की शुरुआत १० मई १८५७ को मेरठ मे बंगाल आर्मी की स्थानीय आर्टिलरी द्वारा की गई । इसके परिणाम स्वरूप माउंटेन आर्टिलरी बैट्रियों को छोड़कर सभी भारतीय आर्टी यूनिटों पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई । बाद मे अंग्रेज़ सरकार द्वारा इस आदेश को लागू करने में नरमी बरतने के कारण १५ जनवरी १९३५ को ‘ए’ फील्ड ब्रिगेड की स्थापना की गई जो बाद मे प्रथम भारतीय फील्ड रेजीमेंट बनी।
वीर हाशिम की लड़ाई
प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत होने से भारतीय आर्टिलरी को अपना असली दमखम दर्शाने का अवसर मिला। सुदूर पूर्वी अफ्रीका, गैलिपोली, मेसोपोटामिया एवं फिलिस्तीन में लड़ाई लड़ते हुये भारतीय गनर्स ने बेजोड़ साहस एवं उत्साह का परिचय दिया । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय गनर्स ने पूर्वी एवं उत्तरी आफ्रिका, मध्य पूर्व की लड़ाई मे भाग लिया जिसके दौरान हवलदार उमराव सिंह ने अपनी तोप को बचाने का प्रयास करते हुये अपनी गन रेमर से जापानी सैनिको पर हमला किया। भारतीय आर्टिलरी के सैनिको द्वारा अकेले अर्जित सम्मानों के अलावा भारतीय गनर्स के सामूहिक शौर्य एवं समर्पण को सम्मान प्रदान कराते हुये सर विसटन चर्चिल ने हाउस ऑफ कॉमन्स मे अपनी सीट से उठकर गनर्स को श्रद्धांजलि अर्पित की जिन्होने रोमेल की पनजीर सेना के खिलाफ वीर हाशिम की लड़ाई मे निर्णायक भूमिका निभाई थी ।
द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक भारतीय गनर्स ने एक विक्टोरिया क्रॉस, एक जॉर्ज मेडल १५ मिलिट्री क्रॉस, दो आई ओ एम, २२ आई डी एस एम, १८ मिलिट्री मेडल, पाँच ओ बी ई, एक एम वी ई, तीन वी ई एम १३ बर्मा वीरता मेडल एवं ४६७ जंगी ईनाम अर्जित किए । द्वितीय विश्व युद्ध मे भारतीय आर्टिलरी के योगदान के कारण १९४५ मे इसे प्रतिष्ठित उपाधि रॉयल हासिल हुई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के दौरान भारतीय आर्टिलरी मे फील्ड, एअर डिफेंस काउंटर बोम्बार्ड्मेंट, कोस्टल, एअर, ओबज़रवेशन पोस्ट शाखाएँ शामिल थी तथा इसे सभी किस्म की साढ़े अठारह आर्टिलरी रेजीमेंट प्रदान की गई जबकि बाकी साढ़े नौ यूनिट पाकिस्तान के हिस्से मे आई।
जम्मू एवं कश्मीर आपरेशन (१९४७-४८)
१९४७-४८ के दौरान जम्मू एवं कश्मीर आपरेशनों मे भारतीय आर्टिलरी की भागीदारी की शुरुआत सिविल एवं रॉयल इंडियन एअर फोर्स डकोटा की शुरुआत उड़ानों के साथ हुई जिनके द्वारा १ सिख बटालियन को २७ अक्टूबर १९४७ की सुबह श्रीनगर पहुंचाया गया । २ फील्ड रेजीमेंट (एस पी) एवं १३ फील्ड रेजीमेंट के सैनिको ने १ सिख बटालियन के सैनिको की वर्दी पहनी तथा १३ फील्ड रेजीमेंट के कप्तान आर एल चौहान के नेतृत्व मे बटालियन की एक सम्मिश्रित कंपनी के रूप मे आगे बढ़ी। नवंबर १९४७ के पहले सप्ताह तक इसने इन्फैन्ट्री के रूप मे कारवाई की तथा गन चार ३.७ इंच होवितजर तोपें उस इलाके मे पहुंची । इसके बाद इसने तोपों को अपने अधिकार मे ले लिया तथा श्रीनगर – बारामुल्ला रोड के साथ वाले इलाके से घुसपैठियों को खदेड़ने मे इन्फैन्ट्री की सहायता की। बाद मे आर्टिलरी एअर फील्ड की रक्षा करने मे पाकिस्तानी काबाइलियो को जम्मू क्षेत्र एवं कश्मीर घाटी से खदेड़ने मे कामयाबी हासिल करने मे निर्णायक साबित हुई। १९४७-४८ के दौरान आर्टिलरी ने पुंछ, राजौरी, तंगधार टिथवाल, द्वारा एवं कारगिल पर कब्जा करने मे अहम भूमिका निभाई।
पुंगली ब्रिज की लड़ाई
आर्टिलरी रेजीमेंट के लिए १९७१ का भारत पाक युद्ध पहले की अपेक्षा अधिक चुनौतीपूर्ण था। ऐसा पहली बार हुआ की भारतीय सेना को एक साथ दो मोर्चो पर बड़े स्तर पर युद्ध लड़ना पड़ा। पूर्वी सेक्टर मे आर्टिलरी को विभिन्न बड़ी एवं छोटी नदियो के पार तोपे एवं एम्मुनिशन ले जाने के लिए बड़े स्तर पर तात्कालिक प्रबंध करना पड़ा। इस से यह सुनिश्चित हुआ की इन्फैन्ट्री अथवा आर्मर को आर्टिलरी सहायता के लिए एक बार भी कहीं से सहायता नहीं लेनी पड़ी।
इन आपरेशनों के दौरान पैरा फील्ड बैट्री ने तगेल के निकट लोहगंज नदी पर बने पुंगली ब्रिज पर पैरा बटालियन के साथ पैरा ड्रॉप करने की कार्यवाई मे भाग लिया जिससे पूर्वी पाकिस्तान मे पाकिस्तानी सेना द्वारा आत्मसमर्पण किए जाने को जल्द संभव किया जा सका पर बटालियन १६ दिसंबर १९७१ को ११३० बजे ढाका मे प्रवेश करने वाली पहली बटालियन थी इसके बाद लाइट इन्फैन्ट्री वहाँ पहुंची । इस के शीघ्र बाद ही ५६३ माउंटेन बैट्री ने भी ढाका मे प्रवेश किया। इसके साथ ही एक राष्ट्र उदय हुआ । पश्चिमी सेक्टर मे आर्टिलरी ने लद्दाख, कश्मीर, राजौरी, जम्मू, पंजाब एवं राजस्थान मे अहम पाकिस्तानी चौकियो पर कब्जा करने मे प्रमुख भूमिका निभाई। इसने पाकिस्तानी सेना द्वारा पश्चिमी सेक्टर मे भारतीय क्षेत्र के बड़े हिस्सो पर कब्जा करने के पाकिस्तानी इरादों को नाकाम करने मे भी अहम भूमिका निभाई ।
टाइगर हिल
कारगिल युद्ध क्षेत्र आर्टिलरी रेजीमेंट के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण था । वह स्थिति भारतीय सेना एवं देश के लिए बड़ी गंभीर थी । ऐसे मे कड़ी कार्यवाई करने की जरूरत थी । ऊंचे स्थानो पर मोर्चे बनाकर बैठे हुये दुश्मन को वहाँ से खदेड़ना एवं सफाया करना था ताकि इन्फैन्ट्री आक्रमण करके अपना इलाका वापस ले सके। ऐसे वक्त पर आर्टिलरी रेजीमेंट को कार्यवाई करने के लिए बुलाया गया तथा इसके बाद ऊंचे पर्वतो मे आर्टिलरी को बड़े स्तर पर तैनात करने की बेजोड़ ऐतिहासिक कार्यवाई की गई जो मिलिट्री युद्धकला मे एक महत्वपूर्ण घटना है। अपरम्परागत आपरेशनों मे गनर्स की भागीदारी की शुरुआत उत्तर पूर्वी भारतीय राज्यो मे हिंसक विद्रोहात्मक आंदोलनो को नियंत्रित करने के लिए इन्फैन्ट्री भूमिका मे इनकी तैनाती के साथ हुई । धीरे धीरे आर्टिलरी को नागालैंड, मणिपुर, मिजोराम, आसाम, पंजाब, जम्मू एवं कश्मीर एवं अन्य जगहो पर प्रति विद्रोहता ओपरेशनों मे इन्फैन्ट्री भूमिका मे व्यापक रूप से तैनात किया जाने लगा। उप यूनिट स्तर की तैनाती से शुरू होकर इसे रेजीमेंट एवं ब्रिगेड स्तर पर तैनात किया जाने लगा । गनर्स ने राष्ट्रीय राइफल्स एवं असम राइफल्स मे भी उत्कृष्टता से कार्य किया है, प्रति विद्रोहिता कार्यो मे आर्टिलरी यूनिटों की कारगर कार्यप्रणाली की काफी सराहना की है। प्रतिष्ठित सेनाध्यक्ष यूनिट प्रशस्ति पत्र तथा बीस यूनिटों को जी ओ सी इन सी यूनिट सराहना पत्र प्रदान किए गए है। कई और यूनिटों ने भी सराहनीय उपलब्धियां हासिल की है। आर्टिलरी यूनिटों ने समय समय पर बाढ़ एवं भूकंप राहत कार्य, बचाव आपेशन, दुर्गम क्षेत्रो मे स्कूल एवं रोड्स का निर्माण करने मे सहायता प्रदान करने, आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रो मे सड़क मार्ग खोलने के कार्य, जन चेतना अभियानो एवं भूतपूर्व सैनिको के लिए रैली का आयोजन करने जैसे कई अलग अलग किस्म के कार्यो को अंजाम दिया। निसंदेह इस बात का श्रेय इन गनर्स को जाता है जिन्होने अपने मुख्य कार्यो मे पूरी तरह से रहने के बावजूद इस तरह से अलग कार्यो को पूरे जोश एवं उत्साह के साथ पूरा किया। आरंभ मे आर्टिलरी रेजीमेंट मे कोस्टल आर्टिलरी एअर ओबज़रवेशन पोस्ट, एवं एअर डिफेंस आर्टिलरी शाखाएँ शामिल थी तथापि इसका विस्तार होने एवं निरंतर बढ़ती प्रतिबद्धताओं के चलते इन शाखाओं को विभक्त करके पूर्णत आपरेशनल सेनांग बना दिया गया। 1964 मे कोस्टल आर्टिलरी का भारतीय नौसेना मे विलय कर दिया गया। 1986 मे एअर आबज़रवेशन पोस्ट का विभाजन करके सेना विभाजन करके सेना विभाजन का नाम दिया गया तथा 1994 मे वायु रक्षा शाखा का विभाजन करके सेना वायु रक्षा कोर का गठन किया गया ।